सावदा घेवरा के पाठक

आइये मिले पाठकों से
अंकुर किताबघर में किशोर-किशोरियाँ किताबों की दुनिया से जुड़ते हैं। किताबों को पढ़ते हैं, परखते हैं, सराहते हैं और उनके साथ रचनात्मक खेल भी करते हैं। किताबघर में कहने-सुनने, देखने-समझने, पढ़ने-लिखने और बयां करने के अलग-अलग अंदाज़ के लिए जगह है। साथी कहानियाँ पढ़ते भी हैं, और रचते भी हैं। कभी पढ़ी हुई कहानियों में अपनी रचनाओं के सिरे ढूंढ़ते हैं तो कभी अपने आसपास की घटनाओं और किरदारों से कहानियाँ बुनते हैं। अपनी रचनाओं को मोहल्ले में बाँटते हैं और मोहल्ले के लोगों को किताबघर से जुड़ने के लिए आमंत्रित करते हैं।
अंकुर किताबघर, सावदा घेवरा के साथियों ने अपने मोहल्ले की ऐसी शख्सियतों को तलाशा जिन्हें किताबों से लगाव है और पढ़ने से जुड़े उनके क़िस्सों को सुना। ये क़िस्से थे रोज़ाना की ज़िम्मेदारियों और पाबंदियों में पढ़ने के लिए वक़्त चुराने के; पढ़ने के ठिकाने ढूंढ़ने के; पढ़ने की लत लगने के; दिलचस्पी की किताबें खोजने के; किताबों के खो जाने के; किताबघर का साथ पाने के।
इस बातचीत में साथियों ने सामाजिक पहचानों से परे ‘पाठक’ के रूप में इन शख्सियतों का परिचय लिया। पेश है इन मुलाक़ातों की कुछ झलकियाँ।

रात में चाचा नहीं, चंदा मामा आते थे

श्याम कुमारी, 28 साल की हैं। अपने घर में ही छोटे बच्चों का क्रेश चलाती हैं। साथ ही दिल्ली सिविल डिफेंस में नार्थ वेस्ट जिला की मंडल प्रतिपालक हैं । बचपन से ही श्याम कुमारी को किताबें पढ़ना अच्छा लगता था। अपने बचपन को याद करते हुए उसने बताया-
“हमारे घर की पुरानी अलमारी के पीछे एक किताब रखी थी जो शायद घर की आख़िरी किताब थी, बाकी सब किताबें तो चाचा-चाची ने गली में आने वाले कबाड़ी को बेच दी थी। किताब पर धूल ही धूल थी। मैंने उस किताब को पोंछ कर तकिए के नीचे रख दिया। जब मुझे ख़ाली वक़्त मिला तो मैंने उस किताब को उठाया। दीवार के सहारे बैठ कर, ज़मीन पर पैर फैलाकर, उस किताब को पढ़ना शुरू किया। पूरी किताब कहानियों से भरी थी। मैंने एक कहानी पढ़ी और फिर किताब तकिए के नीचे वापस रख दी।
जब भी काम नहीं रहता मैं किताब पढ़ने बैठ जाती। मेरे हाथ में किताब देखकर चाचा अक्सर डाँट दिया करते। कहते, “जा जाकर काम कर, तेरे अलावा काम कौन करेगा। जब देखो तब ख़ाली यूं ही बैठी रहती है, कोई काम नहीं करती।”
मुझे उस किताब को खत्म करने में एक महीना लगा। चाचा की डाँट की वजह से दिन में तो पढ़ नहीं पाती थी। रात को उस किताब को अपनी छत पर चाँद की रोशनी में पढ़ती थी। मैं लेट कर किताब को अपने आगे रख लेती और पढ़ती रहती। मन में उस कहानी की बातें चलती जो मैं पढ़ रही होती। मुझे रात में चाँद और खूबसूरत नज़र आता था, लगता था चाँद कुछ ज़्यादा रोशनी दे रहा है।
हर रात जब मै छत पर कहानी पढ़ती तो समझ नहीं पाती कि वो छत मेरी है या कहानियों की। सीढ़ियों का दरवाज़ा भी बंद करना ज़रूरी नहीं था। रात में चाचा नहीं, चंदा मामा आते थे।
श्याम कुमारी कहती हैं, “किताबें पढ़ने के लिए कोई टाइम-टेबल नहीं होता सिर्फ़ वक़्त निकालना पड़ता है।”

लेख- निखिल। उम्र 13, आठवीं कक्षा में पढ़ते है। पिछले तीन साल से अंकुर किताबघर, सावदा घेवरा के नियमित रियाज़कर्ता है।

मैंने अपने वजन से ज़्यादा किताबें पढ़ी हैं
दोपहर का समय था जब मो. खलील अहमद से मिला। वे बागपत के रहने वाले हैं।
मोहम्मद खलील अहमद जब 19-20 साल के थे तो पुरानी दिल्ली के चितली कबर इलाके में किराए के मकान में रहते थे। वो खारी बावली, नई सड़क, जामा मस्जिद और दरियागंज में दुकानों से सामान पहुँचाने का काम करते थे। उन्हें किताबें पढ़ना अच्छा लगता था। वहाँ एक किताबघर था जहाँ उर्दू की किताबें होती थीं। वहीं से उर्दू की दो पत्रिकाएँ भी छपती थीं। खलील अहमद अक्सर उस किताबघर में जाया करते थे। उन्हें ज़्यादातर जासूसी किताबें अच्छी लगती थी।
जब भी दिन में टाइम मिलता तो एक-डेढ़ घंटे पढ़़ लेते और रात को भी पढ़ते। उन्होंने एक इबानब नाम की जासूसी किताब पढ़ी। जब वो किताब पढ़ते उनके दोस्त भी उनके साथ किताब पढ़ने लगते। किताब पढ़ कर सभी बैठ जाते और एक-दूसरे से किताब की कहानी पर सवाल-जवाब करते। जब वो किताबघर से लौटते तो घरवालों से बातें सुननी पड़ती थी “तुमने किताबघर में ही पूरा दिन क्यों लगा दिया? ऐसा क्या है किताबघर में?” वो जवाब दिए बिना ही छत पर चले जाते। जो किताबें वह किराए पर लाते थे उन्हें पढ़ने लगते। उन्होंने किताबघर से मुस्लिम इतिहास पर एक किताब लाकर पढ़ी और उसके बारे में लिखा भी।
अम्मी और अब्बू के इंतकाल के बाद वह दुखी रहने लगे पर उन्होंने किताब पढ़ना नहीं छोड़ा। हर दिन किताबें पढ़ते। वक़्त बीतता गया और वो चितली कबर से नांगलामाची आकर रहने लगे। उन्होंने बच्चों को उर्दू और मज़हबी तालीम देना शुरू किया। यहाँ भी उनकी पढ़ने की आदत बनी रही। जब नांग्लामांची बस्ती तोड़ी गई तो उन्हें सावदा में ज़मीन मिली जिस पर वे घर बना कर रहने लगे। अपने सामान के साथ वो जो किताबें लाए थे, वो उन्हें पढ़ते।
कुछ समय बाद सावदा के किताबघर के बारे में पता चला। किताबघर के अंदर जाकर देखा तो उन्हें वहाँ कई सारी किताबें दिखाई दीं – हिंदी, इंगलिश और उर्दू में। तब से उन्होंने रोज़ाना किताबघर जाना शुरू कर दिया। वहाँ जाकर किताब पढ़ने में उन्हें बड़ा मज़ा आता।
वो उर्दू का इन्कलाव अख़बार और पंजाब केसरी अख़बार भी पढ़ते हैं। उनके घर में हिंदी-उर्दू के अख़बारों का ढेर लगा रहता है। किताबघर से लाई किताब को रात में बड़ी फुरसत से पढ़ते है। वो कहते हैं, “किताबें पढ़ने से मुझे बहुत सुकून मिलता है। मैं अख़बारों और किताबों को ज़्यादा तवज्ज़ो देता हूँ।”
एक दिन किसी ने मोहम्मद खलील अहमद से सवाल किया, “आपने अब तक कितनी किताबें पढ़ ली हैं?” उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “मैंने अपने वजन से ज़्यादा किताबें पढ़ी हैं।”

लेख – नितेश। उम्र 14, नवीं कक्षा में पढ़ते है। पिछले चार साल से अंकुर किताबघर, सावदा घेवरा के नियमित रियाज़कर्ता है।

कहानियाँ पढ़ने का चस्का
एक जैसी दिखती गलियाँ किसी भूल भुलैया से कम मालूम नहीं पड़ती। उसी भूल-भूलैया के गलियारे में दिनेश गुप्ता का दो मंजिला घर है। वो कानपुर के रहने वाले हैं।
गाँव में उनके परिवार की मिठाई की दुकान थी। वो अक्सर स्कूल से आते ही दुकान पर चले जाते। एक्शन और रोमांच से भरी जासूसी कहानियाँ पढ़ने में उन्हें बड़ा मज़ा आता। मज़ा तब और दोगुना हो जाता जब मिठाई की मिठास मुँह में घुलने लगती जैसे जलेबी में चाशनी घुल रही हो। धीरे-धीरे उन्हें कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग गया। कभी ट्रेन में बिकती पत्रिकाओं को पढ़ते तो कभी कबाड़ में किताबें ढ़ूढ़ते। पढ़ने की आदत ने पढ़ाई में भी मदद की। 1970 में अच्छे नंबरों से बी.ए. पास किया।
1980 में वो दिल्ली आए और नांगलोई में अपने रिश्तेदार के साथ रहे। कुछ समय बाद वहीं किराए पर कमरा लेकर रहने लगे और वहीं चाय की दुकान खोल ली। उन्हें मालूम हुआ कि पास ही में पब्लिक लाइब्रेरी है। अपनी चाहत से रूबरू होकर वो फूले नहीं समाए। चाय की दुकान से उन्हें जब फुरसत मिलती वो लाईब्रेरी चले जाते। उस लाईब्रेरी के साथ उन्होंने बीस साल गुज़ारे। वहाँ उन्होंने प्रेमचंद द्वारा लिखी ‘दो बैलों की कथा’ पढ़ी, जो उन्हें बहुत पसंद आई। हीरा-पन्ना का लगाव उनके मन को छू गया। उन्होंने लाइब्रेरी की ढेरों किताबें पढ़ डाली। सुनकर बड़ा अचम्भा हुआ कि कैसे कोई किताबों से इतना लगाव रख सकता है।
2014 में वे नांगलोई से अपने बेटे के पास सावदा घेवरा आकर रहने लगे। यहाँ किताबघर में वो रोज़ आते हैं। किसी किताब के शुरू के चार-पाँच पन्ने पढ़कर ही वो अंदाज़ लगा लेते हैं कि किताब कैसी है तभी वो अपनी उंगली किसी और किताब पर रखते हैं। किताबघर से हमेशा एक किताब लेकर जाते हैं। महीने में दस-बारह किताबें पढ़ते है। तीन-चार दिन में एक किताब पढ़ लेते है। लेख में समाज का ताना-बाना ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं।
कुछ समय पहले वो ट्रेन से अपनी बेटी के घर जा रहे थे। उनके बैग में सामान कम उनकी मनपसंद किताबें ज़्यादा थी। ट्रेन से उतर कर बेटी के गाँव पहुँचने के लिए उन्होंने शेयरिंग ऑटो किया। जब तक बाकी सवारियां आ रही थी उन्होंने सोचा कि क्यों ना मैं पानी पी आऊँ। पानी पीकर लौटे तो देखा कि ऑटो निकल चुका था। उस बैग में उनके पैसे और कुछ कीमती चीज़ें भी थीं पर उनकी जान तो उनकी किताबों में थी। सामान खोने का उतना दुःख नहीं हुआ जितना की अपनी किताबों का। और उस डायरी को खोने का भी जिसमें उन्होंने अपनी जीवनी लिखना शुरू किया था।
उन्होंने रामायण को भी कई बार पढ़ा है। दोबारा पढ़ने में उन्हें रामायण में कुछ नया भी दिखता है। उनका छोटा सा पोता युग, जब उनकी किताबों को छेड़ता है तो उनका ध्यान युग पर कम और अपनी किताबों पर ज़्यादा रहता है कि कहीं वो उनकी किताबें ना फाड़ दे।
72 साल की उम्र में भी किताबें पढ़ने की उनकी चाहत कम नहीं हुई है। वो कहते है कि जब तक पाठक ज़िंदा रहता है तब तक उसमें पढ़ने की चाहत बनी रहती है।

लेख- प्रियंका, उम्र 19, बीएसडब्लू (प्रथम वर्ष) की छात्रा है। पिछले सात साल से अंकुर किताबघर, सावदा घेवरा की नियमित रियाज़कर्ता है।

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