किताबों से प्यार

जब मैं अपनी पिछली जिन्दगी में झाँकता हुँ (वैसे अभी ज्यादा गुजरी नही हैं) तो मुझे लगता हैं कि मैरे अकेलेपन के दिनों में कोई मेरा सच्चा साथी रहा हैं तो वो हैं किताबें। शुरू से ही किताबें खरीदने और पढ़ने का शौक काफी रहा। किताबें और खुद के बनाए हुए नोट्स संभालकर रखने की लगन इतनी प्रगाढ थी कि परिक्षा समाप्त होने के बाद जब हिसाब लगाते थे तो पता चलता था कि एक बोरा भरकर किताबें और रजिस्टर जमा हो गए हैं। कच्चा घर होने के कारण ज्यादा किताबें तो संभालकर नही रख पाया परन्तु फिर भी लगभग काफी किताबें सुरक्षित मिल जायेगी।

सरकारी विद्यालय में पढ़ने के कारण हमें किताबें निःषुल्क मिल जाया करती थी या घर वाले किसी रिष्तेदार भाई-बहिन (जो मुझसे एक कक्षा आगे जा चुके थे) की दिलवा देते थे। मुझे पहली किताब कक्षा छः के दौरान खरीदने का मौका मिला, वो भी घर वालो से काफी जिद करके तथा पाँचवी में अच्छे प्रतिषत अंक प्राप्त होने के कारण ही उसे खरीद सका। वो एक पास बुक (एक प्रकार की गाइड बुक – जिसमें प्रष्नोत्तर हल किये होते हैं) थी, जिसे मैं चाहे खेत पर गेहु की रखवाली करते समय या मवेषी चराते समय हमेषा अपने पास ही रखता था और अपने दोस्तो को भी दिखा सकता था कि देखो मेरे पास भी अपनी खुद की किताब हैं।

मैं अपने स्वयं के किताबों की और छुकाव की एक और मुख्य वजह धार्मिक किताबों को मानता हुँ, चुकि उस समय धार्मिक किताबें (रामायण, कल्याण, प्रेम सागर) और मासिक पत्रिकाएं आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थी तो उनमें पौराणिक कहानियां पढ़ने के लिए पन्ने पलटते रहते थे और रामायण तो हम प्रति नवरात्रा में पढ़ने के लिए बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।

Image courtesy: Alia Sinha

मुझे काॅलेज के वो दिन आज भी याद हैं जब जिन्दगी काफी तंगी के गुजर रही थी और घर वालों के हिसाब से किताबों के दाम आसमान छु रहे थे तब दोस्तो के माँगकर पढ़ना व घंटो पुस्तकालय में बैठकर समय गुजारना आदत सी बन गई थी, चुकि परिक्षा के दिनों में किताबें घर के लिए स्वीकृत नही की जाती थी तक एक बार मैंने चोरी – छिपे किताब घर ले जाने की कौषिष की तो मैं पकडा गया परन्तु पढ़ाई में थौड़ा होषियार होने के कारण लाईब्रेरियन सर ने व्यक्तिगत रूप से मेरी मजबुरी भाँपकर किताब निष्चित समय में वापस लौटाने की शर्त पर घर ले जाने की स्वीकृति दे दी, चुकि मैं काफी डर गया था और ग्लानी भी महसूस कर रहा था तो उन्होने कहा कि ऐसा करने वाले तुम पहले नही हो।

दूसरा प्रसंग मुझे याद आ रहा हैं जब मैं नौकरी करने लग गया था तो वहाँ किताबे पढ़ने का मुझे काफी मौैका मिलता था और किताबे भी आसानी से मिल जाया करती थी जो ज्यादात्तर सामाजिक मुद्दों, क्रांतिकारी विचारों, मानवाधिकारों, जल व पर्यावरण संरक्षण आदि विचारों का समर्थन करती थी परन्तु इनमें से मैं हिन्दी में लिखी किताबें ही पढ़ता था क्योकि अंग्रेजी भाषा तो आज भी अपना काम निकालने के लिए ही काम में लेता हुँ और शायद इसी लिए अंग्रजी भाषी लेखको को न पढ़ पाने का मलाल आज तक हैं। पुनः प्रसंग पर लौटते हैं कि एक संस्थान में मैने नई – नई नौकरी शुरू ही की थी और नया – नया होने के कारण वहाँ के नियमों से भी ज्यादा परिचित नही था। वहाँ भी मुझे कई किताबें और स्क्रेप बुक पढ़ने को मिल जाया करती थी चुकि मैं कमरा लेकर अकेला रहता था तो मैने सौचा कि क्यो न इनको घर ले चले और पढ़ने के बाद वापस रख देंगे। इस उद्देष्य से मैने कुछ किताबें अपने बैग में डाल ली परन्तु उस दिन होनी को कुछ और ही मंजुर था। जब मैंने किताबें अपने बैग में डाल रहा था तभी मुझे मैरी कहकर्मी ने देख लिया था और मुझें कुछ बताए बगेर ही प्रबन्धक से षिकायत कर दी। प्रबन्धक द्वारा बुलाकर पुछताछ करने पर मैने डर के मारे हड़बड़ाहट में किताबें बैग में रखने की मना कर दी और बोल दिया कि मैने ऐसा कुछ नही किया अगले ही पल मुझे याद आया कि मुझसे गलती हो गई, परन्तु अब क्या होगा मैं तो पहले ही मना कर चुका था फिर मेरे बैग की जाँच की गई और इस प्रकार मैं मेरी छोटी सी गलती और पढ़ने की आदत के कारण जीवन का बहुत बडा कलंक अपने ऊपर लगवा चुका था। अगले ही दिन मुझे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। उस दौरान कोई भी मेरी बात का विष्वास नही कर रहा था और ना ही मेरी भावनाओं को समझ पा रहे थे। उसके बाद मुझे पुनः मुख्यधारा में आने में काफी समय लगा था। परन्तु अब एक बात का काफी दुःख होता हैं कि आज के समय में मैं किताबों से काफी दूरी बना चुका हुँ।

किताबों से दूरी बनाने के लिए मैं उस एक घटना को दोषी नही मानता हुँ, बल्कि आज की दौड़-भाग भरी जिन्दगी में काम का बोझ, बच्चों के साथ समय बिताना और समसे मुख्य कारण टेक्नोलोजिकल संसाधनों (मोबाईल, लेपटोप आदि) में ज्यादा घुसे रहना हैं। क्योकि राज की बात तो यह हैं कि किताबें तो आज भी मेरे थैले में पढ़ी रहती हैं और मेरा थैला हमेंशा मेरे साथ रहता हैं, परन्तु पढ़ नही पाता हुँ। अब इन्तजार हैं तो ऐसी किसी पे्ररणा का जो मुझे पुनः किताबों की दुनिया में खीच ले जाये।

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