(लेखक : यह सिर्फ़ एक लिखित दस्तावेज़ नहीं है बल्कि ये बतलाता है कि निम्नवर्गीये बसेरों में पढ़ने की जगहों का धीरे – धीरे करके लुप्त हो जाना कितने पाठकों को खो रहा है। हम ये तो मानकर चलते हैं कि हर इंसान एक पुस्तकालय की तरह होता है लेकिन इस पुस्तकालय से मिलने की जगह कहाँ है? ये दस्तावेज़ उस ‘कहाँ’ को देखने की चेष्ठा में अभी तक ख़त्म ही नहीं हुआ है…)
Photo credit: Lakhmi Kohli
ज़मीन पर एक बेहद जज्जर सी दरी बिछा दी गई। पूरी जगह अभी खाली है। दरी बिछा कर पार्क को साफ करने का काम किया जा रहा है। बड़ी सी झाड़ू को लिए एक शख्स ज़मीन की छाती को चीर रहा है। सूखे पत्ते उस झाड़ू की चुभन से दूर होकर यहाँ से वहाँ दौड़ लगा रहे हैं। कभी कोने में चले जाते हैं तो कभी बीच में आ जाते हैं। ज़मीन फिर भी साफ होती दिखाई दे रही है। झाड़ू लगाता हुआ शख्स दरी के ऊपर से भी उसी तरह से सफाई कर रहा है जैसे ज़मीन की कर रहा था। झाड़ू की सींख दरी में फंस रही है। पर कुछ ही मिनटों में उसने पूरी जगह को साफ कर दिया और दरी को पहले की तरफ बिछा दिया। झाड़ू को एक कोने में खड़ा कर वो शख्स अंदर कमरे में चला गया। बाहर रह गया तो बस सन्नाटा और वो दरी जो अब धूप में जलती रहेगी।
मार्च का महीना और कहानियों की छटाई यहाँ का एक खास रिवाज़ सा बन गया है। इस जगह से वास्ता रखने वाले ये सब पहले से जानते हैं। हर साल नई किताबों को यहाँ पर शामिल किया जाता है और पुरानी किताबों को धूप लगाकर फिर से रजिस्टर कर वापस रख लिया जाता। इस दौरान सबसे अच्छा माहौल बनता इन किताबों को पढ़ने वालों का। ये किताबें उन्हे लंबे समय तक पढ़ने के लिए दी जाती हैं। ये वे किताबें हैं जो कई समय से डिब्बों में बंद थी। वे जिन्हे पुस्तकालय में तो रखा जाता लेकिन पढ़ने वालों के लिए खोला नहीं जाता। पुस्तकालय की किताबों को पढ़ने वाले ये सदस्य जो हफ्ते में सिर्फ एक ही बार आते थे, उन्हे पहले से ही इन बाहर रखी जाने वाली किताबों के बारे में पता चल जाता था। जिनका कार्ड बना हुआ है, वो इनमें से भी अपने लिए पढ़ने लायक किताब ले सकते हैं। अब उन किताबों को देखने का मन किसका नहीं होगा जिन्हे पहले कभी नहीं देखा हो? तो बस इन किताबों को पढ़ने वालों का तांता जुड़ने लगता।
बस, अभी छटाई का माहौल बनाया जा रहा है।
वो आदमी फिर से पार्क में दाखिल हुआ। इस बार उसके हाथ में एक बहुत बड़ा बोरा था जिसे वो अपने सिर पर संभाले लिए आ रहा था। पहले वो उसे लिए कुछ पल खड़ा रहा। शायद सोच रहा था की कैसे उसे नीचे उतारे। उसने आसपास नज़र दौड़ाई लेकिन जब कोई नहीं दिखा तो उसने बोरे को एक ही झटके में ज़मीन पर बिछी दरी पर दे मारा। बोरा ज़मीन पर पड़ते ही अधमरा सा हो गया, जैसे उसने अपने सारे हाथ पाँव छोड़ दिये हों। उस आदमी ने अपनी कमर को सीधा किया और दरवाज़े की ओर देखने लगा। उसे शायद किसी का इंतज़ार था। वो बोरे को वहीं पर छोड़ कर पार्क के अंदर ही एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसकी नज़र सरकारी स्कूल के उस पुस्तकालय के अंदर के गेट पर ही टिकी हुई थी। बाहर का बड़ा गेट अब भी बंद था। अभी वक्त नहीं हुआ था उसे खोलने का। बड़े से उस दरवाज़े के बाहर कुछ लड़के और लड़कियां दिखाई दे रहे थे। ये पुस्तकलाये के ही सदस्य थे जो रोज़ यहाँ कुछ नया पढ़ने कि इच्छा से आते।
भीतर से एक आदमी बाहर आया। उसके हाथ में एक रजिस्टर था। वो पहले तो बोरे को उठा कर लाये आदमी के पास गया। उससे दो टूक बात की और फिर दोनों ही दरी पर पड़े उस बेसहारा बोरे के पास आए और उसे खोलने का काम शुरू किया। एक आदमी उसमे हाथ डालता और अंदर से किताबों का एक पूरा जत्था बाहर निकलता। रंगीन किताबें। कुछ उजड़ी हुईं। कुछ मोटी। कुछ पतली। कुछ फटी हुईं तो कुछ एक दम साबुत। गेट के बाहर खड़े लड़के और लड़कियों की नज़र उस शख्स के हाथ पर पूरी तरह से टिकी हुई थी। जैसे ही वो कुछ खींच कर बाहर निकालता, उन लड़के-लड़कियों के चेहरों के भाव बदल जाते। ये बिलकुल ऐसा था जैसे गली में कोई जादू का खेल दिखाने वाला अपने पिटारे में से कुछ अनोखा निकालता है तो पास में खड़े बच्चे खिलखिला उठते हैं।
उस आदमी के हाथ लगातार हरकत में थे। गर्मी बड़ रही थी और उसे ये कतई मंजूर नहीं था की वो ज़्यादा देर यहाँ पर रुके। रजिस्टर हाथ में लिए दूसरा शख्स शायद इस इंतज़ार में था की कब ये किताबें बाहर आएगी और वो कब गिनती कर उन्हें अपने रजिस्टर में चिन्हित करेगा।
देखते ही देखते बोरा आधे से ज़्यादा खाली हो गया। उस आदमी ने यह महसूस कर फिर बोरे को उल्टा कर पूरा ही खाली कर दिया। रंगीन कवर वाली किताबें धूप में चमक कर बाहर रोके गए उन लड़के और लड़कियों को अपनी ओर खींच रही थीं। वो पहले से ही तय कर चुके थे की कौन किस तरफ जाएगा और कौन सी किताबों को सबसे पहले उठाएगा। देखते – देखते दरवाज़े के बाहर भीड़ लगनी शुरू हो गई थी। उन लड़के और लड़कियों के बीच कुछ बच्चे भी खड़े हो गए जो इस जगह से कोई वास्ता नहीं रखते थे पर भीड़ देखकर चले आए थे। उन्ही के बीच कुछ बड़े लोग भी दिखने लगे।
बाहर खड़े एक शख्स ने चिल्लाकर कहा, “अरे भाई, अब तो गेट खोल दो।”
अंदर किताबों को निकालते, बिछाते, चिन्हित करते दो आदमियों ने उनकी आवाज़ को अनसुना कर दिया।
बाहर खड़े बच्चों ने चिल्लाया, “अंकल गेट खोल दो।”
ये आवाज़ भी अनसुनी कर दी गई। अंदर काम चालू है और बाहर बेचैनी बढ़ती जा रही है। कुछ ही देर में किताबों का जमीन पर ही ऐसा चीट्ठा बना दिया गया जैसे बाज़ार में पुराने कपड़ों का बनाया जाता है। एक पहाड़ सा। दोनों बंदे किताबों का पहाड़ बना कर पुस्तकलाये के भीतर चले गए। कुछ देर तक बाहर और अंदर दोनों तरफ शांति सी रही।
कुछ बच्चों में हलचल सी होने लगी। एक ने दूसरे से कहा, “ओए गोलू, जा जाकर रजनीश को बुलाकर ले आ। वो ही बंदा है जो बड़े लोगों से पहले किताब उठा लेगा।”
उसके साथ वाले लड़के ने पता नहीं क्या समझा लेकिन तुरंत ही हाँ में सिर हिला दिया। उन्ही के पीछे खड़े एक आदमी ने कहा, “कौन सी क्लास में पढ़ते हो तुम? पढ़ते भी हो या नहीं?”
उनमें से एक लड़के ने जवाब दिया, “पढ़ते हैं अंकल।”
“कौन सी क्लास में?”
“छठी में।”
“पढ़ना आता भी है या नहीं?”
बच्चा ( मुंह बनाकर बोलते हुए ), “और क्या?”
“यहाँ पर क्या करने आए हो? यहाँ पर तो वही आ सकता है जो यहाँ पढ़ने आता है।”
बच्चा ( दम लगाकर ), “किताब देखने और लेने आए हैं। और मेरा भाई यहाँ पर पढ़ने आता है। वो मुझे भी लाया था अपने साथ। जो किताब देते हैं वो अंकल मुझे जानते हैं।”
वो आदमी शक्की नज़र से बोला, “यहाँ पर तो स्कूल की किताब नहीं है तो तुम क्या लेने आए हो?”
बच्चा बोला, “अंकल हमें पता है। हम तो कहानियों की किताब लेने आए हैं।”
वो आदमी फिर उसी अंदाज़ से बोला, “कोई किताब पहले पढ़ी भी है या नहीं?”
बच्चे बोले, “अंकल हमने तीस कॉमिक्स और दस कहानियों की किताब पढ़ी हैं।”
वो आदमी इतना सुनते ही चुप हो गया। वो शायद समझ गया था की उसने इतना नहीं पढ़ा होगा।
अंदर से एक आदमी बाहर आया और उसने उस बड़े से गेट को खोल दिया। उसके खुलते ही सभी बच्चे तेज़ी से उस ढेर के तरफ दौड़ गए। बच्चों ने किताबों के उस अंबार के नीचे हाथ डालकर उसे एक ही तरफ से नीचे की ओर गिरा दिया। अपनी इच्छा से सभी किताबें चुन रहे थे। बच्चों का दिमाग तो सिर्फ रंगीन कवर वाली किताबों की तरफ था। नौजवान लड़के नॉवल खोज रहे थे और लड़कियां स्कूल की किताबों को तलाश रही थी। बड़ों के दिमाग में क्या चल रहा है ये समझ में नहीं आ रहा था। पुस्तकलाये का कोई भी आदमी वहाँ पर नहीं था। बस किताबों को उन हाथ पैर मारते लोगों के बीच में छोड़ दिया गया था। कुछ समय तक तो ऐसा लगा जैसे किताब तलाशने वालों ने पहली बार ये सब देखा है।
जिसके हाथ में भी किताब लगती वो सबसे पहले उसे खोलकर देखता। साथ में खड़े कुछ लड़के एक ही किताब को पढ़ रहे थे। उस किताब मे कुछ पन्ने अलग से लगे हुए थे। किसी ने उन पन्नों में अपने बारे में कुछ लिखा हुआ था। किताब के हर तीसरे पन्ने पर एक सफ़ेद पन्ना लगा था। पहले पन्ने पर लिखा था: “मेरा दोस्त है राजू, जो मुझसे नाराज़ हो गया है। जो भी इस किताब को पढ़े…”
किसी ने इतना लिखकर छोड़ दिया था। लड़कों की बेचैनी बड़ गई। उन्होने आगे के पन्नों को खोलना शुरू किया। उनके हाथ फिर से एक पन्ना लगा जिसपर लिखा था: “उसका नम्बर मैं आखिर के पन्ने पर लिख रहा हूँ, कृप्या आप उसको मेरी तरफ से फोन करके कहना की अंजली बहुत प्यार करती है तुमसे।” उन लड़कों ने तुरंत अपने फोन में उस नंबर को उतार लिया। मिलाया भी लेकिन वो नम्बर बहुत पुराना था, लगभग सन 1995 का होगा।
अगले पेज पर लिखा था: “चलिये रहने दीजिये, मैं खुद बात कर लूँगी लेकिन हो सके तो आप उसके घर जाकर बात कर लेना। उसका पता मैंने लिख दिया है।”
लेकिन उस घर को काटा हुआ था। चाहकर भी ये नहीं पता कर सकते थे कि ये कहाँ का है? एक लड़का अपने माथे पर हाथ मारता हुआ बोला, “कहानी में एक और कहानी चल रही है भाई।”
दूसरा बोला, “असली कहानी तो ये है। हम तो इसके एक्टर से मिल भी सकते हैं।”
इतना कहकर सभी हंसने लगे। उनमें से एक लड़के ने किताब पुस्तकलाये के बंदे को दिखाई तो वे हँसने लगे। कहने लगे, “यहाँ के बच्चे बहुत शैतान है। ऐसी हरकतें तो आपको हर किताब मे दिखाई देगी। किसी-किसी में तो उन्होंने किताब की कहानी के नीचे अपनी ही कहानी लिखी हुई है।”
ना जाने कितने ऐसे मैसेज़ उन किताबों में भरे हुए थे। एक जगह से दूसरी जगह पर और एक किताब से दूसरी किताब तक ये मैसेज़ पँहुचने का काम करते। कहीं पर लाइनों के अन्दर ही किसी मैसेज़ को पहेली की तरह रखा गया था तो कहीं पर कुछ और। कभी-कभी तो ऐसा लग रहा था कि किताब की कहानी पढ़ रहे हैं या किसी का गुमनाम ख़त। हर लम्हे मे मज़ा था और थोड़ी हैरानी भी। वो तो उस बात को कहकर बस हँसे जा रहे थे। अब उनको ये कौन बताता कि ये किसी बच्चे का काम नहीं है, किसी जवान का है। बहुत ही इश्क-मुश्क वाली बातें लिखी थी उसमे। खैर, ये जगह दक्षिण पुरी की एक मात्र ऐसी जगह थी जिसे पढ़ने की जगह कह सकते हैं या शायद कुछ और भी।
लड़कों ने किताबों ही किताबों में कई कहानियाँ मस्ती लेकर पढ़ीं। देखते ही देखते पार्क के एक कोने में पढ़ने वालों की एक कतार सी बनने लगी। एक खूबसूरत माहौल जमने लगा। किताबों का अंबार तो पूरी तरफ से धुवस्त हो चुका था लेकिन किताबें अलग अलग हाथों में अपने रंग बिखेरने लगती थी। ऐसा लगता था की जैसे किताबों से कहानियाँ बाहर निकल आई हैं।