सिरोही जिले के आबू रोड ब्लॉक में अर्ली लिटरेसी प्रोजेक्ट के तहत 10 राजकीय विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों के साथ लाइब्रेरी कार्य करने के दौरान टैबलेट आधारित ई-पुस्तकों के संकलन (ई-रीडर) का अनुप्रयोग हुआ l इस प्रोजेक्ट, जिसको “और एक कहानी” नाम दिया गया, के साथ काम करने के दौरान बच्चों ने जो प्रतिक्रियाएं दी, उससे कई सवाल मेरे मन में घर कर गए l टैबलेट जैसे उपकरण पर बच्चों ने पहली बार जब अपनी नन्ही उंगलिंयां फिराते हुए अपनी दुनिया के बारे में खोजना शुरू किया तो उनके चेहरे पर उत्सुकता एवं आनंद के भाव बिखरे देख बहुत अच्छा लगा l बोलती किताबों और पात्रो की गतिशील रंगीनीयत ने बच्चों को अपनी ओर तुरंत व सहज ही आकर्षित कर लिया और सबसे पहला सवाल मन में खड़ा हुआ – क्या किताबें पहली बार में ऐसा कर पाती ?
टैबलेट पर कुछ महीने अंगुलियां फिराते-फिराते बच्चों ने कहानियों की ई-किताबों से दोस्ती कर ली हो ऐसा लगने लगा, पर सब कुछ खोज लेने की बाल मन की चाहत और इसके लिए उनकी लम्बी छलांगों को सहज प्रवृत्ति मान कर अपने जैसी दुनिया की खोज करते देख दूसरा सवाल आया की ये दोस्ती टैबलेट से है या किताबों से ?
कुछ समय और बीत जाने पर टैबलेट में कहानियों और खेल-खेल में टेक्स्ट पढ़ना सीखने के अनुप्रयोगों से बच्चों का लगाव बढ़ता ही चला जा रहा है, और उनको जब तक रोका न जाये तब तक टैबलेट पर कुछ न कुछ करते रहने से एक और सवाल उठा की बच्चों के लिए अपनी इच्छा से कहानियां पढ़ने और आनंद देने वाले खेल खेलने के बीच हमारी किताबें कहा है ? और इनकी बच्चों को कितनी ज़रुरत है ? और ज़रुरत है भी या नही ?
मेरे लिए इन सवालों के जवाब ढूंढना भी बहुत रोचक रहा और ये जवाब ढूंढ़ने के लिए लाइब्रेरी एजुकेटर कोर्स (LEC) ने काफी मदद की l सबसे पहले यह जानना कि ये बच्चे जिस परिवेश से आते है उनमे किताबों के अलावा मोबाइल, टैबलेट और टीवी जैसे दृश्य-श्रव्य साधनों की कितनी जगह है ? तो पता चला की लगभग सभी बच्चों ने मोबाइल अपने गाँव एवं घर में अपने बड़ों के पास देखे हैं जिसमे वो बात करने के आलावा गाने, विडियो और फोटो देखकर आनंदित होते हैं लेकिन कुछ ही बच्चों ने कभी मोबाइल हाथ में लेकर चलाया था l और अधिकतर बच्चों के घर में टीवी नहीं है लेकिन वो टीवी के बारे में जानते हैं l अगर किताबों की बात करे तो इक्का दुक्का बच्चों के घर में ही कहानियों एवं कविताओं की किताबें उपलब्ध थी l कुछ विद्यालयों में बच्चों का पाठ्य पुस्तकों के इतर भी लाइब्रेरी की पुस्तकों एवं बाल साहित्य का अच्छा खासा संग्रह उपलब्ध था परन्तु बच्चों की उनसे सहज संवाद की स्थिति नहीं देखी गई l
एक और बात जो भाषा के सन्दर्भ में पता चली कि बच्चों के घरों में पूर्णतया स्थानीय भाषा (गरासिया एवं मारवाड़ी) ही बोली जाती थी जो शायद उनके माता पिता की औपचारिक हिंदी की शिक्षा के आभाव के कारण था l हिंदी से इन बच्चों का वास्ता केवल शिक्षकों द्वारा दिए जाने वाले निर्देशों एवं कक्षाओं में पढ़ाने के दौरान ही पड़ता था और अधिकतर बच्चे हिंदी में पढ़ने के लिए वर्णों, शब्दों एवं वाक्यांशों के साथ जूझते हुए किताबों में लिखा पढ़ने में असहज ही महसूस कर रहे थे l तो इस पूरे सन्दर्भ में बच्चों की शुरूआती दोस्ती टैबलेट से थी और कही न कही टैबलेट में भी एनीमेटेड विडियो युक्त कहानियों से और उन में भाषा सम्बन्धी रोचक खेल अनुप्रयोगों से भी क्योंकि वो उन्हें देखने सुनने एवं समझने के बाद आनंद दे रही थी l लेकिन चित्रकहानियों एवं अधिक टेक्स्ट वाली कहानियों की ई-पुस्तकों में बच्चों की रूचि ज़्यादा नहीं थी l ई-लाइब्रेरी के दौरान पढ़ने में रूचि पैदा करने वाली गतिविधियों जैसे रीड अलाउड, सह पठन एवं बुक टॉक ने कुछ बच्चों में चित्र कहानियों को पढ़ने के लिए जरुर थोड़ी रूचि जगाई थी l लेकिन फिर भी बच्चों ने प्रिंट किताबों से दोस्ती नहीं की थी l
LEC के दौरान फील्ड कार्य शोध हेतु जब दो विद्यालयों में प्रिंटेड किताबों के साथ जब इसी तरह की गतिविधियां नियमित की जाने लगीं तो बच्चों ने तुरंत ही किताबों को भी टैबलेट कि तरह अपना दोस्त बनाना शुरू कर दिया l यह देखकर अचम्भा ही था की दोनों साधनों में उनके आकर्षण का केंद्र कहानियां ही थी l एक फर्क जो नज़र आया वो यह था की बच्चे ई-पुस्तकों के बजाय पुस्तकों को ज़्यादा गंभीरता से ले रहे थे l जैसे कहानी को पूरा देखना या पढ़ना, ई-पुस्तकों के बजाय पुस्तकों के चित्रों पर ज़्यादा गौर करना l और गौर करने वाली बात यह भी थी कि 120 ई-पुस्तकों के संग्रह में बच्चों को 40 के लगभग ई- पुस्तकें ही पढ़ने में ज़्यादा अच्छी लगीं l बस सभी एनिमेटेड विडियो वाली कहानियां बच्चों ने खूब पसंद की l तो मेरे पहले और दूसरे सवाल का जवाब मेरे सामने था की बच्चों के लिए टैबलेट एवं “और एक कहानी” शुरुआत में आकर्षण का केंद्र थी और इसकी मुख्य वजह थी एनिमेटेड विडियो युक्त कहानियां, परन्तु बच्चों के सामान्य पुस्तकों से एक बार जुड़ने के बाद पुस्तकों ने भी वही काम किया जो ई-पुस्तकों ने किया था l एक बार बच्चों का जुडाव कहानियों से होने के बाद बच्चों ने दोनों तरह की पुस्तकों को पढने में तरहीज दी l एक बात और निकल कर सामने आई कि खेल खेल में हिंदी भाषा सीखने के लिए टैबलेट में भाषा-अनुप्रयोगों को भी बच्चों ने खूब पसंद किया l
जब कुछ समय बीत जाने पर बच्चों के लिए टैबलेट (और एक कहानी) और कहानियों की किताबें सहज उपलब्ध होने लगीं तो अचानक ही यह देखना बहुत ही रोचक रहा कि कुछ बच्चों ने अपनी पसंद की कहानी पढने के लिए टैबलेट की जगह सामान्य पुस्तक को चुना l पर इस तथ्य की पुष्टि के लिए मुझे लगता है कि बच्चों के साथ “और एक कहानी” और पुस्तकों के साथ लाइब्रेरी के समग्र आयामों को ध्यान में रखते हुए कुछ और समय बिताना आवश्यक है l
पर अब तक के “और एक कहानी” एवं पुस्तकों के सफ़र में यह बात तो साफ़ साफ़ पता चल चुकी है कि बच्चों के लिए टैबलेट और एनिमेटेड पुस्तकों से जुड़ना बहुत आसान था पर दूसरे प्रकार की ई-पुस्तकों के साथ यही बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती जब तक बच्चों के साथ लाइब्रेरी आधारित द्रश्य-श्रव्य-पठन गतिविधियां नहीं की जाएँ l वही कुछ समयोपरांत बच्चों को कहानियों से जुड़ने के लिए प्रिंट किताबों ने भी वही काम किया जो कि टैबलेट और “और एक कहानी” ने किया था l और कहीं कहीं यह संकेत भी मिले कि कहानियों की किताबों के साथ बच्चों का जुड़ाव ई-पुस्तकों में कहानियों को पढ़ने की तुलना में ज़्यादा गहरा था जहाँ बच्चों ने चित्रों को देख कर कहानी समझने, कहानी के भावो को आत्मसात करने एवं अपनी प्रतिक्रियाये देने में ज़्यादा संवेदना दिखाई l पर यह दावे के साथ कहना शायद थोड़ा जल्दबाज़ी भरा निर्णय होगा l इसके लिए कुछ और समय ई-पुस्तकों एव प्रिंट पुस्तकों को एक ही कसौटी पर कसना होगा व यह देखना होगा कि एसा किस वजह से हो रहा है l
मेरे मन की शंका – क्या डिजिटल तकनीक एवं ई-पुस्तकों की वजह से प्रिंट पुस्तकों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जायेगा? – इसका एक अपुष्ट जवाब तो मुझे मिल ही गया की शायद नही, निकट भविष्य में तो बिलकुल नहीं क्योंकि सबके लिए जहाँ डिजिटल तकनीक एवं ई-पुस्तकों की सहज उपलब्धता अभी भी दूर की कौड़ी है, वही दीर्घ काल से चली आ रही पुस्तक संस्कृति ही बच्चों में उन मानवीय संवेदनाओ का विकास कर सकती है जो कि आभासी न होकर वास्तविक है l
एक पुस्तक अपने अस्तित्व का अहसास दे सकती है पर एक ई-पुस्तक शायद नहीं l
गज्जब सर, और लास्ट लाइन बड़ी लाजवाब है, एक पुस्तक ही अपने अस्तित्व का एहसास दे सकती है, इ-पुस्तक नही।
thanks Kamms..
Enjoyed reading your reflective piece Dilip. Keep questioning!
Thanks a lot Mam!!
Wonderful to read your piece Dilip. Keep writing
Thank you Ajaa Ji…
बधाई दिलीप भाई. बहुत ही बढ़िया लिखा है.
एक पंक्ति जिस पर मुझे कुछ खटका और मैं ठहर सा गया-
एक और बात जो भाषा के सन्दर्भ में पता चली कि बच्चों के घरों में पूर्णतया स्थानीय भाषा (गरासिया एवं मारवाड़ी) ही बोली जाती थी जो शायद उनके माता पिता की औपचारिक हिंदी की शिक्षा के आभाव के कारण था l
यह सही है कि औपचारिक शिक्षा हमें अपनी घरेलु भाषा से दूर कर देती है और एक समय के बाद लगभग हमसे हमारी स्थानीय भाषा को हमसे छीन भी लेती है. स्थानीय भाषाओँ के मरते चले जाने जाने का यही एक कारण भी है. लेकिन यह इतना जल्दी भी नहीं होता जितना जल्दी आपने यह निष्कर्ष निकाल लिया है. हम तमाम औपचारिक शिक्षाओं के बाद भी अपनी स्थानीय या मातृभाषाओं के सहारे भी जीते रहते हैं और यह एक भाषिक और सांस्कृतिक बहुलता को दूर तक सहेजे रखने की कोशिश भी होती है.
बहरहाल एक बार फिर बधाई और शुभकामनायें.
Thanks a lot Prabhat Ji for feedback & suggestions…Looking forward to you many more.